नित्य मानस चर्चा🌴 दोहा 233 से आगे दोहा 334 तक
श्री राम जय राम जय जय राम जय जय विघ्न हरण हनुमान सुप्रभात मंगलम गुरु पूर्णिमा की मंगल कामनाओं सहित श्री सद्गुरु चरण कमलेभ्यो नमः
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🌴नित्य मानस चर्चा🌴
दोहा 233 से आगे दोहा 334 तक
धरि धीरजु एक आलि सयानी।
सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।
भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥
एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं॥1॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे।
सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा।
सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥
तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा। नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥2॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता।
भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली।
अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥
जब सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं- बड़ी देर हो गई। (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी॥3॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी।
भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने।
फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥
सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं॥4॥
देखन मिस मृग बिहग तरु
फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि
बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥
मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता है)॥234॥
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गुरु पूर्णिमा की मंगल कामनाओं सहित सुप्रभात मंगलम श्री राम जय राम जय जय राम
🌴जय जय श्रीसीताराम🌴
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🌴नित्य मानस चर्चा🌴
दोहा 233 से आगे दोहा 334 तक
धरि धीरजु एक आलि सयानी।
सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।
भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥
एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं॥1॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे।
सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा।
सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥
तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा। नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥2॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता।
भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली।
अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥
जब सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं- बड़ी देर हो गई। (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी॥3॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी।
भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने।
फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥
सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं॥4॥
देखन मिस मृग बिहग तरु
फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि
बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥
मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता है)॥234॥
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गुरु पूर्णिमा की मंगल कामनाओं सहित सुप्रभात मंगलम श्री राम जय राम जय जय राम
🌴जय जय श्रीसीताराम🌴
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