मनुस्मृति की प्रेरक शिक्षाएँ



*🌷 मनुस्मृति की प्रेरक शिक्षाएँ🌷*

*१)* विधि यज्ञ से जप यज्ञ दश गुणा अधिक है और वही अगर दूसरों को न सुने ऐसा जप शतगुणा अधिक कहा है और वाणी के न हिलने केवल मन से जो जप किया जाए वह सहस्र गुणा अधिक कहा है।ये जो चार यज्ञ हैं ये सब जप यज्ञ के सोलहवें भाग को भी नहीं पाते अर्थात् जप यज्ञ सबसे श्रेष्ठ है।

*२)* वेदाध्ययन,दान,यज्ञ,नियम और तप ये दुष्ट स्वभाव वाले को कभी सिद्ध नहीं होते।

*३)* वेदों से समृद्ध कुल चाहे अल्प धन वाले भी हों,चाहे थोड़े धन वाले भी हों,परन्तु बड़े कुल की गिनती में गिने जाते हैं व यश को प्राप्त होते हैं।(अर्थात् कुल की प्रतिष्ठा वेद पाठ से है न कि नौकरी,व्यापार और धन आदि आडम्बर से)

*४)*जो-जो कर्म दूसरे के आधीन हैं उन-२ को यत्न से छोड़ देवे और जो-जो अपने आधीन है उनको यत्न से करे।दूसरे के आधीन होना ही सम्पूर्ण दुःख है और स्वाधीनता ही सम्पूर्ण सुख है।

*५)* असत्य भाषण से यज्ञ नष्ट होता है।विस्मय से तप तथा ब्राह्मणों की निन्दा से आयु और चारों और कहने से दान घटता है।

*६)* जैसा किसी का आत्मा हो वैसा ही अपने को बताये क्योंकि जो अपने को और कुछ बताता है और है कुछ और,वह लोगों में बड़ा पाप करने वाला आत्मा का चुराने वाला चोर है।सम्पूर्ण अर्थ वाणी में बंधे हुए हैं और सबका मूल वाणी ही है उस वाणी को जो चुराये वह मनुष्य सम्पूर्ण चोरियों का करने वाला है।

*७)* निर्जन स्थान में अकेला आत्मा का चिन्तन करे,क्योंकि अकेला ध्यान करता हुआ परम मोक्ष को पाता है।

*८)* जो मनुष्य अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है,वह पुरुष इस लोक में और परलोक में मरकर सुख नहीं पाता।

*९)* जो पुरुष प्राणियों को बन्धन में रखने व मारने का क्लेश देना नहीं चाहता,वह सबके हित की इच्छा करने वाला अनन्त सुख को प्राप्त होता है।
वह जो कुछ सोचता है जो कुछ करता है और जिसमे धृति बाँधता है,वह सब उसे सहज में प्राप्त हो जाता है,जो कि अहिंसक प्राणियों को नहीं मारता।

*१०)* योग से परमात्मा की सूक्ष्मता का ध्यान करे।उत्तम और अधम योनियों में जीवों के शुभ अशुभ फल भोग के लिए उत्पत्ति का भी चिन्तन करे।दोष लगाने पर भी सम्पूर्ण जीवों में सम-दृष्टि करता हुआ धर्म का आचरण करे क्योंकि चिन्ह (तिलक आदि) धर्म का कारण नहीं है (अर्थात् तिलक आदि लगाने से मनुष्य धार्मिक नहीं हो जाता, वेदानुकूल आचरण से ही मनुष्य धार्मिक होता है)।

*११)* अधर्म करने वाले पापियों को सुख भोगता हुआ देखकर भी और अपने को धर्म करके दुखी होता देखकर भी मन को अधर्म में न लगावे।इस लोक में अधर्म किया हुआ उसी समय फल नहीं देता परन्तु धीरे-धीरे फैलता हुआ अधर्म करने वाले की सुख की जड़ें काट देता है।

*१२)* परलोक में सहाय के लिए माँ-बाप नहीं रहते,न पुत्र न स्त्री,केवल एक धर्म रहता है।अकेला ही जीव पैदा होता है और अकेला ही मरता है।


Comments

Popular posts from this blog

ईश्वर का अंश जीव

शुभाशयाः (Greetings)

(विदुर- नीति) श्लोक