कबीर वाणी ,मन ऐसा निर्मल भया जैसे गंगा नीर ,पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर

 मन ऐसा निर्मल भया जैसे गंगा नीर
 पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर

कबीर वाणी
*वाह कबीरजी !*
*कितनी मार्मिक बात कह दी है आपने।*
*कबीर कहते हैं कि मन से जब सभी कामनाएं, वासनाएं आदि विकार तिरोहित हो जाते हैं, तब मन गंगा जल की तरह निर्मल हो जाता है।*

*ऐसी अवस्था को उपलब्ध हुए व्यक्ति को परमात्मा को कही ढूंढने जाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि स्वयं परमात्मा ही उसे ढूंढ लेते हैं।*

*निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।*
*अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभि:।।*
*(भागवतम्/११/१४/१६)*

*कहने का अर्थ यह है कि मन के निर्मल होते ही व्यक्ति स्वयं ही परमात्मा स्वरूप हो जाता है।*

*मन के निर्मल होने का अर्थ मन का अमन होना है। मनुष्य में मन का होना ही उसे परमात्मा से अलग करता है। मन के मिटते ही वह स्वयं ही परमात्मा स्वरूप हो जाता है।*

*"परमात्मेति चाप्युक्तो .."*
*(गीता/१३/२२)*

*अब उसे परमात्मा को पाने के लिए किसी प्रकार के विशेष साधन अथवा प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।*
*🌷हरि:शरणम्🌷*
*🏵👴🏻कबीर वाणी भाग-20👴🏻🏵*
*साधू भूखा भाव का*
*धन का भूखा नाही |*
*धन का भूखा जो फिरे*
*सो तो साधू नाही ||*

*कबीर के काल से लेकर वर्तमान तक आते आते समय कितना बदल गया है, हालांकि तब भी कलियुग था और आज भी वही कलियुग चल रहा है।*

*कबीर की कही हुई यह बात आज भी प्रासांगिक है कि संतजन भाव के भूखे होते है, धन के नहीं।*

*जो धन के पीछे दौड़ लगा रहा हो वह भला संत कैसे हो सकता है।*

*"अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एवं तु"*
*(भागवतम्/११/२/११)*

*आज कथित संत ज्ञानोपदेश के लिए भी पहले एक निश्चित धनराशि की मांग करने लगे हैं।*

*उन्हें साधु न कहकर व्यवसायी कहना अधिक उपयुक्त होगा।*

*साधु तो वह होता है जो सत्संग में भाव के साथ परमात्मा में लगा होता है, जहां भाव का अभाव हो, परमात्मा के अतिरिक्त केवल संसार की चर्चा हो, वहां वह एक पल के लिए भी नहीं ठहर सकता।*

*धन के प्रति उसकी किंचित मात्र भी आसक्ति नहीं होती। वह धन अथवा सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त कर लेने के लोभ में इधर उधर नहीं भटकता।*

*उसके प्रयास केवल आत्मबोध के लिए होते हैं, सांसारिक लाभ के लिए नहीं।*

*अतः हमें वास्तविक साधु की पहचान करनी हो तो कबीर के इस दोहे को ध्यान में रखते हुए कर सकते हैं।*

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