एक ऐसा परिवार जिसकी कथा स्वयं शिव जी भी गाते है
श्री सूर्य देवाय नमः
*एक ऐसा परिवार जिसकी कथा स्वयं शिव जी भी गाते है*
रामायण की कथा आज हर घर में गाई जाती है,क्योकि रामायण की कथा कोई सामान्य परिवार की कथा नहीं है,
एक ऐसा दिव्य परिवार जहाँ हर व्यक्ति के कर्मो में दिव्यता है, इसलिए स्वयं शिव जी भी कैलाश पर बैठकर इस परिवार की कथा गाते है.
जिसकी हर चौपाई अपने आप में सिद्ध मंत्र है.सुबह शाम भक्तजन जिसे बड़े प्रेम से गाते है.
और क्यों न गाये,जहाँ आज के परिवारों में सोच खत्म होती है वही इस परिवार की सोच शुरू होती है.
1.पिता (दशरथ ) – जिन्होंने वचन के लिए अपने प्राणों का त्याग कर दिया,पर वचन नहीं त्यागा,अपनी पत्नी को ही तो वचन दिए थे,चाहते तो ना निभाते.पर निभाया.
2.माता (कौसल्या)- कौसल्या जी कह सकती थी,राम मेरा पुत्र है मै रानियों में सबसे बड़ी हूँ,
मेरे पुत्र को वन भेजने वाली कैकयी कौन होती है,कोई बड़े ह्रदय वाली होती तो कहती अपने पुत्र भरत को राजा बनाये या वन में भेजे,
मेरे पुत्र को कैसे वन भेज सकती है,पर विपरीत परिस्थितियों में भी कौसल्या जी का चरित्र उभरकर आया.
भगवान राम का प्राकट्य ऐसे ही नहीं कौसल्या जी के यहाँ हुआ ?राम वन जा रहे है उसकी चिंता तनिक भी नहीं है,
भरत को कुछ नहीं होना चाहिये.कही भरत प्राण का त्याग दे ये डर उन्हें ज्यादा है.
3.पत्नी (सीता जी)- सीता जी भी महलों में रहकर सास ससुर की सेवा कर सकती थी,और आज की स्त्री होती तो कहती माँ ने वन जाने को कहा और आप चल दिए,
हम वन को जाए और बाकि सभी महलों में सुख से रहे?पर सीता जी ने एक बार भी नहीं कहा.
यहाँ तक कि उन्हें जब दुबारा वनवास हुआ (एक बार श्री राम जी के साथ १४ वर्ष का और दूसरी बार श्री राम जी ने वनवास दिया)उस समय सीता जी ८ माह गर्भवती थी लव कुश गर्भ में थे,
जानकी जी भगवान से कह सकती थी प्रभु क्या मेरा सारा जीवन अग्नि परीक्षा में जायेगा,
आपने जिस व्यक्ति के मुख से ऐसा मेरे बारे में सुना आप उसे बुलाए, उसने ऐसा कैसे कह दिया.
प्रभु! मुझे मालूम है राजा बनते समय आपने शपथ ली थी – प्रजा की प्रसन्नता के लिए यदि मुझे जानकी को त्यागना पड़े तो त्याग दूँगा,
पर सीता जी कह सकती थी आपका तेज मेरे गर्भ में है,आठ मास हो चुके है केवल एक मास ही शेष है,
उन्हें आपके चरणों में अर्पण कर मै चलि जाऊँगी, ऐसे में तो कोई मजदूर भी अपनी पत्नी को घर से नहीं निकालता.
पर जानकी जी एक शब्द भी नहीं बोली,वे मौन रही और रोई भी नहीं, प्रणाम करके चली गई.
हमारे जीवन में दुःख आता है तो हम इस आशा में उस दुःख को काट लेते है कि आज नहीं तो कल ये दुःख कट जायेगा
और सुख जीवन में आ जायेगा,परन्तु सीता जी के जीवन को देखो,राम राज्य के बाद सभी सुखी थे
परन्तु सीता जी को फिर वनवास मिला,और इस बार तो श्री राम भी साथ नहीं,पति साथ हो तो स्त्री बड़े से बड़ा दुःख,संकट भी सह लेती है,
परन्तु सीता जी को तो श्री राम जी का साथ भी नहीं मिला.अकेले ही दोनों पुत्रो को पला.
4. भाई (भरत और लक्ष्मण)- जब लक्ष्मण जी को श्री राम के वन जाने का समाचार मिला तो वे उनके पास आये,
तब श्री राम कहते है लक्ष्मण अयोध्या में अभी भरत ,शत्रुध्न नहीं है,पिता वृद्ध है
और इस समय बहुत दुखी है ऐसे में तुम्हे ही अयोध्या को संभालना है,माता पिता गुरु की सेवा करो.इस पर लक्ष्मण जी ने बड़ी प्यारी बात कही
“जहँ लगिजगत सनेह सगाई,प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी,दीनबंधु उर अंतरजामी”
अर्थात – जगत में जहाँ तक स्नेह का सम्बन्ध प्रेम और विश्वास है जिनको स्वयं वेद ने गाया है – हे स्वामी !हे दीनबंधु ! हे सबके ह्रदय के अंदर की जानने वाले मेरे तो वे सब कुछ आप ही है
“गुरु पितु मातु न जानउ काहू, कहूउ सुभाऊ नाथ पतिआहू”
अर्थात – मै तो प्रभु (आपके)स्नेह में पला हुआ छोटा सा बच्चा हूँ कही हंस भी मंदराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते है
हे नाथ मै तो स्वभाव से ही कहता हूँ आप विश्वास करे मै आपको छोड़कर गुरु पिता माता किसी को भी नहीं जानता.
लक्ष्मण जी कहते है – प्रभु! आप किसे धर्म और नीति का उपदेश कर रहे है धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिये
जिसे कीर्ति विभूति या सद्गति प्यारी हो.किन्तु जो मन वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम राकहता हो हे कृपा सिंधु क्या वह भी त्यागने के योग्य है ?
6. भरत जी – जब भरत जी अयोध्या वापस आये और नंदीग्राम में निवास करने लगे तो भरत जी की रहनी, करनी, समझ, भक्ति, वैराग्य, निर्मल गुण, का वर्णन करने में सभी सकुचाते है,
उनके व्रत और नियमों को सुनकर साधू संत भी सकुचा जाते है और उनकी स्थिति देखकर मुनिराज भी लज्जित होते है,वशिष्ठ जी की निगाहे नीची हो जाती है.
“सुनि व्रत नेम साधू सकुचाही, देखि दसा मुनिराज लजाहीं”
सिर पर जटाए है, शरीर पर मुनियों के वल्कल वस्त्र है, भरत जी भूमि में गड्डा खोदकर सोते है कि मै तो सेवक हूँ जब मेरे स्वामी श्रीराम पृथ्वी पर सोते है तो मुझे उनसे नीचे सोना चाहिये,
कुश की आसनी पर सोते है,भगवान तो वन में कदमूल फल खाते है, पर भरत जी के त्याग का कौन वर्णन कहाँ तक वर्णन करे.
भरत जी वन जाते है गौ का गोवर लाते है उसके गोवर में जो गेहूँ के दाने होते है उसे सरयू के जल में धोते है,
स्वयं पीसते है फिर गौ के मूत्र में भीगा कर सत्तू बनाकर खाते है.उनका भोजन, वस्त्र, बर्तन, व्रत, नियम सभी बातो में वे ऋषियों के कठिन धर्म से भी आगे आचरण करते है.
अयोध्या में दो पक्ष है एक भगवान राम के त्याग का पक्ष लेता है और दूसरे भरत जी के त्याग का पक्ष लेता है परन्तु जब दोनों पक्ष मिलते है,तो सभी मिलकर यही कहते है,
कि भरत जी का त्याग सर्वापरि है भगवान तो वन में रहकर त्याग किया है
पर भरत जी ने भवन में रहकर गहने, कपड़े, और अनेको प्रकार के भोग, सुखो को मन, तन और वचन से तृण की भांति त्याग दिया.
सच है श्रीरामचन्द्र के प्रेमी बडभागी पुरुष लक्ष्मी के विलास को वमन की भांति त्याग देते है.
“पलक गात हियँ सिय रघुबीरू ,जीह नामु जप लोचन नीरू
लखन राम सिय कानन बसहीं ,भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं”
भगवान की जटाए तो वन में रहकर बड़ी है,परन्तु भरत जी की जटाए अयोध्या में बड़ी है.
भरत जी को देखने पर हड्डियों का ढाचा ही दिखायी पडता है.शरीर पुलकित है,ह्रदय में सीता राम जी है
और जीभ राम नाम का जप कर रही है नेत्रो में प्रेम का जल भरा है,भवन में रहकर ही तप से शरीर को कस रहे है.
यदि परमात्मा को पाना है तो भरत जी की साधना का अनुसरण करना होगा.जब भरत जी जैसी साधना होगी तो हमें भगवान को याद नहीं करना पड़ेगा भगवान हमें हर समय याद करेगे.
7. सुमित्रा जी (लक्ष्मण जी की माता)- जब लक्ष्मण जी भगवान राम के साथ वन जाने की आज्ञा लेने सुमित्रा जी के पास जाते है.
और सोचते जा रहे है कि प्रभु को तो मना लिया परन्तु माँ को कैसे मनाऊंगा ?सुमित्रा जी के पास जाकर सब कथा विस्तार से कह सुनाई -तब माता सुमित्रा कहती है –
“तात तुम्हारि मातु वैदेही ,पिता रामु सब भांति सनेही”
सुमित्रा जी कहती है – मै तुम्हारी माता नहीं हूँ,तुम्हारी माता जानकी जी है और पिता श्री रामचंद्र जी तुम्हारे पिता है.
मानो कहना चाहती है कि जब राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया, तो तुम अपने पिता राम की आज्ञा का पालन करो,मै तुम्हे आज्ञा देने वाली कोई नहीं.
“अवध तहाँ जहँ राम निवासु, तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासु
जौ पै सीय रामु वन जाही, अवध तुम्हार काजु कछु नाही “
अर्थात – जहाँ श्री राम जी का निवास हो वही तुम्हारी अयोध्या है.जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वही दिन है,
यदि निश्चित ही सीता-राम वन को जाते है तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है.
8. उर्मिला जी (लक्ष्मण जी की पत्नी)- वनवास जाते समय लक्ष्मण जी से उर्मिला जी कह सकती थी जब माता कौसल्या जी कह रही है
मै अपने पति को छोडकर अपने पुत्र राम के साथ वन नहीं जा सकती,जब सीता जी अपने पति श्री राम जी के साथ वन जा सकती है तो मै क्यों नहीं ?
पर उर्मिला जी ने ऐसा नहीं कहा,क्योकि वे जानती है मेरे स्वामी लक्ष्मण जी का जीवन राम सेवा के लिए ही हुआ है और मै उसमे बाधा नहीं बनना चाहती.
जब लक्ष्मण जी ने नीद को भी त्यागा तब एक दिन निद्रा देवी लक्ष्मण जी के पास आई,और बोली – तुमने मुझे जीत लिए है,मै तुमसे प्रसन्न हूँ,
कोई वर मांगो,तब लक्ष्मण जी ने कहा आप यदि प्रसन्न है तो अयोध्या में उर्मिला के पास जाईये,
तब निद्रा देवी उर्मिला जी के पास गई और उनसे कहा- तुम्हारे पति ने मुझसे जीता है और मै बहुत प्रसन्न हूँ और आपसे वर मांगने को कहा है अतः आप वर मांगिये.
तब उर्मिला जी बोली – कि यदि आप प्रसन्न है तो इतना वर दीजिये,कि चौदह वर्षों तक कभी भी मेरे पति को मेरी याद न आये,
कितनी बडी बात यहाँ उर्मिला जी कह रही है,जिन्होंने अपने नाम को सार्थक किया है,
अर्थात “उर” “मिला”,अपने उर को अन्तः करण को मिलाया है.शारीरक वासना का जहाँ कोई काम ही नहीं है.
और ऐसा ही क्यों माँगा उर्मिला जी ने क्योकि उर्मिला जी जानती है कि भगवत सेवा में भोगो का सर्वोपरि त्याग होना चाहिये
और लक्ष्मण जी के महान त्याग में यदि एक बार भी उर्मिला जी कि याद आती तो मोह आ जाता इसलिए वे कहती है कि मेरी याद नहीं आनी चाहिये.
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*एक ऐसा परिवार जिसकी कथा स्वयं शिव जी भी गाते है*
रामायण की कथा आज हर घर में गाई जाती है,क्योकि रामायण की कथा कोई सामान्य परिवार की कथा नहीं है,
एक ऐसा दिव्य परिवार जहाँ हर व्यक्ति के कर्मो में दिव्यता है, इसलिए स्वयं शिव जी भी कैलाश पर बैठकर इस परिवार की कथा गाते है.
जिसकी हर चौपाई अपने आप में सिद्ध मंत्र है.सुबह शाम भक्तजन जिसे बड़े प्रेम से गाते है.
और क्यों न गाये,जहाँ आज के परिवारों में सोच खत्म होती है वही इस परिवार की सोच शुरू होती है.
1.पिता (दशरथ ) – जिन्होंने वचन के लिए अपने प्राणों का त्याग कर दिया,पर वचन नहीं त्यागा,अपनी पत्नी को ही तो वचन दिए थे,चाहते तो ना निभाते.पर निभाया.
2.माता (कौसल्या)- कौसल्या जी कह सकती थी,राम मेरा पुत्र है मै रानियों में सबसे बड़ी हूँ,
मेरे पुत्र को वन भेजने वाली कैकयी कौन होती है,कोई बड़े ह्रदय वाली होती तो कहती अपने पुत्र भरत को राजा बनाये या वन में भेजे,
मेरे पुत्र को कैसे वन भेज सकती है,पर विपरीत परिस्थितियों में भी कौसल्या जी का चरित्र उभरकर आया.
भगवान राम का प्राकट्य ऐसे ही नहीं कौसल्या जी के यहाँ हुआ ?राम वन जा रहे है उसकी चिंता तनिक भी नहीं है,
भरत को कुछ नहीं होना चाहिये.कही भरत प्राण का त्याग दे ये डर उन्हें ज्यादा है.
3.पत्नी (सीता जी)- सीता जी भी महलों में रहकर सास ससुर की सेवा कर सकती थी,और आज की स्त्री होती तो कहती माँ ने वन जाने को कहा और आप चल दिए,
हम वन को जाए और बाकि सभी महलों में सुख से रहे?पर सीता जी ने एक बार भी नहीं कहा.
यहाँ तक कि उन्हें जब दुबारा वनवास हुआ (एक बार श्री राम जी के साथ १४ वर्ष का और दूसरी बार श्री राम जी ने वनवास दिया)उस समय सीता जी ८ माह गर्भवती थी लव कुश गर्भ में थे,
जानकी जी भगवान से कह सकती थी प्रभु क्या मेरा सारा जीवन अग्नि परीक्षा में जायेगा,
आपने जिस व्यक्ति के मुख से ऐसा मेरे बारे में सुना आप उसे बुलाए, उसने ऐसा कैसे कह दिया.
प्रभु! मुझे मालूम है राजा बनते समय आपने शपथ ली थी – प्रजा की प्रसन्नता के लिए यदि मुझे जानकी को त्यागना पड़े तो त्याग दूँगा,
पर सीता जी कह सकती थी आपका तेज मेरे गर्भ में है,आठ मास हो चुके है केवल एक मास ही शेष है,
उन्हें आपके चरणों में अर्पण कर मै चलि जाऊँगी, ऐसे में तो कोई मजदूर भी अपनी पत्नी को घर से नहीं निकालता.
पर जानकी जी एक शब्द भी नहीं बोली,वे मौन रही और रोई भी नहीं, प्रणाम करके चली गई.
हमारे जीवन में दुःख आता है तो हम इस आशा में उस दुःख को काट लेते है कि आज नहीं तो कल ये दुःख कट जायेगा
और सुख जीवन में आ जायेगा,परन्तु सीता जी के जीवन को देखो,राम राज्य के बाद सभी सुखी थे
परन्तु सीता जी को फिर वनवास मिला,और इस बार तो श्री राम भी साथ नहीं,पति साथ हो तो स्त्री बड़े से बड़ा दुःख,संकट भी सह लेती है,
परन्तु सीता जी को तो श्री राम जी का साथ भी नहीं मिला.अकेले ही दोनों पुत्रो को पला.
4. भाई (भरत और लक्ष्मण)- जब लक्ष्मण जी को श्री राम के वन जाने का समाचार मिला तो वे उनके पास आये,
तब श्री राम कहते है लक्ष्मण अयोध्या में अभी भरत ,शत्रुध्न नहीं है,पिता वृद्ध है
और इस समय बहुत दुखी है ऐसे में तुम्हे ही अयोध्या को संभालना है,माता पिता गुरु की सेवा करो.इस पर लक्ष्मण जी ने बड़ी प्यारी बात कही
“जहँ लगिजगत सनेह सगाई,प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी,दीनबंधु उर अंतरजामी”
अर्थात – जगत में जहाँ तक स्नेह का सम्बन्ध प्रेम और विश्वास है जिनको स्वयं वेद ने गाया है – हे स्वामी !हे दीनबंधु ! हे सबके ह्रदय के अंदर की जानने वाले मेरे तो वे सब कुछ आप ही है
“गुरु पितु मातु न जानउ काहू, कहूउ सुभाऊ नाथ पतिआहू”
अर्थात – मै तो प्रभु (आपके)स्नेह में पला हुआ छोटा सा बच्चा हूँ कही हंस भी मंदराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते है
हे नाथ मै तो स्वभाव से ही कहता हूँ आप विश्वास करे मै आपको छोड़कर गुरु पिता माता किसी को भी नहीं जानता.
लक्ष्मण जी कहते है – प्रभु! आप किसे धर्म और नीति का उपदेश कर रहे है धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिये
जिसे कीर्ति विभूति या सद्गति प्यारी हो.किन्तु जो मन वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम राकहता हो हे कृपा सिंधु क्या वह भी त्यागने के योग्य है ?
6. भरत जी – जब भरत जी अयोध्या वापस आये और नंदीग्राम में निवास करने लगे तो भरत जी की रहनी, करनी, समझ, भक्ति, वैराग्य, निर्मल गुण, का वर्णन करने में सभी सकुचाते है,
उनके व्रत और नियमों को सुनकर साधू संत भी सकुचा जाते है और उनकी स्थिति देखकर मुनिराज भी लज्जित होते है,वशिष्ठ जी की निगाहे नीची हो जाती है.
“सुनि व्रत नेम साधू सकुचाही, देखि दसा मुनिराज लजाहीं”
सिर पर जटाए है, शरीर पर मुनियों के वल्कल वस्त्र है, भरत जी भूमि में गड्डा खोदकर सोते है कि मै तो सेवक हूँ जब मेरे स्वामी श्रीराम पृथ्वी पर सोते है तो मुझे उनसे नीचे सोना चाहिये,
कुश की आसनी पर सोते है,भगवान तो वन में कदमूल फल खाते है, पर भरत जी के त्याग का कौन वर्णन कहाँ तक वर्णन करे.
भरत जी वन जाते है गौ का गोवर लाते है उसके गोवर में जो गेहूँ के दाने होते है उसे सरयू के जल में धोते है,
स्वयं पीसते है फिर गौ के मूत्र में भीगा कर सत्तू बनाकर खाते है.उनका भोजन, वस्त्र, बर्तन, व्रत, नियम सभी बातो में वे ऋषियों के कठिन धर्म से भी आगे आचरण करते है.
अयोध्या में दो पक्ष है एक भगवान राम के त्याग का पक्ष लेता है और दूसरे भरत जी के त्याग का पक्ष लेता है परन्तु जब दोनों पक्ष मिलते है,तो सभी मिलकर यही कहते है,
कि भरत जी का त्याग सर्वापरि है भगवान तो वन में रहकर त्याग किया है
पर भरत जी ने भवन में रहकर गहने, कपड़े, और अनेको प्रकार के भोग, सुखो को मन, तन और वचन से तृण की भांति त्याग दिया.
सच है श्रीरामचन्द्र के प्रेमी बडभागी पुरुष लक्ष्मी के विलास को वमन की भांति त्याग देते है.
“पलक गात हियँ सिय रघुबीरू ,जीह नामु जप लोचन नीरू
लखन राम सिय कानन बसहीं ,भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं”
भगवान की जटाए तो वन में रहकर बड़ी है,परन्तु भरत जी की जटाए अयोध्या में बड़ी है.
भरत जी को देखने पर हड्डियों का ढाचा ही दिखायी पडता है.शरीर पुलकित है,ह्रदय में सीता राम जी है
और जीभ राम नाम का जप कर रही है नेत्रो में प्रेम का जल भरा है,भवन में रहकर ही तप से शरीर को कस रहे है.
यदि परमात्मा को पाना है तो भरत जी की साधना का अनुसरण करना होगा.जब भरत जी जैसी साधना होगी तो हमें भगवान को याद नहीं करना पड़ेगा भगवान हमें हर समय याद करेगे.
7. सुमित्रा जी (लक्ष्मण जी की माता)- जब लक्ष्मण जी भगवान राम के साथ वन जाने की आज्ञा लेने सुमित्रा जी के पास जाते है.
और सोचते जा रहे है कि प्रभु को तो मना लिया परन्तु माँ को कैसे मनाऊंगा ?सुमित्रा जी के पास जाकर सब कथा विस्तार से कह सुनाई -तब माता सुमित्रा कहती है –
“तात तुम्हारि मातु वैदेही ,पिता रामु सब भांति सनेही”
सुमित्रा जी कहती है – मै तुम्हारी माता नहीं हूँ,तुम्हारी माता जानकी जी है और पिता श्री रामचंद्र जी तुम्हारे पिता है.
मानो कहना चाहती है कि जब राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया, तो तुम अपने पिता राम की आज्ञा का पालन करो,मै तुम्हे आज्ञा देने वाली कोई नहीं.
“अवध तहाँ जहँ राम निवासु, तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासु
जौ पै सीय रामु वन जाही, अवध तुम्हार काजु कछु नाही “
अर्थात – जहाँ श्री राम जी का निवास हो वही तुम्हारी अयोध्या है.जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वही दिन है,
यदि निश्चित ही सीता-राम वन को जाते है तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है.
8. उर्मिला जी (लक्ष्मण जी की पत्नी)- वनवास जाते समय लक्ष्मण जी से उर्मिला जी कह सकती थी जब माता कौसल्या जी कह रही है
मै अपने पति को छोडकर अपने पुत्र राम के साथ वन नहीं जा सकती,जब सीता जी अपने पति श्री राम जी के साथ वन जा सकती है तो मै क्यों नहीं ?
पर उर्मिला जी ने ऐसा नहीं कहा,क्योकि वे जानती है मेरे स्वामी लक्ष्मण जी का जीवन राम सेवा के लिए ही हुआ है और मै उसमे बाधा नहीं बनना चाहती.
जब लक्ष्मण जी ने नीद को भी त्यागा तब एक दिन निद्रा देवी लक्ष्मण जी के पास आई,और बोली – तुमने मुझे जीत लिए है,मै तुमसे प्रसन्न हूँ,
कोई वर मांगो,तब लक्ष्मण जी ने कहा आप यदि प्रसन्न है तो अयोध्या में उर्मिला के पास जाईये,
तब निद्रा देवी उर्मिला जी के पास गई और उनसे कहा- तुम्हारे पति ने मुझसे जीता है और मै बहुत प्रसन्न हूँ और आपसे वर मांगने को कहा है अतः आप वर मांगिये.
तब उर्मिला जी बोली – कि यदि आप प्रसन्न है तो इतना वर दीजिये,कि चौदह वर्षों तक कभी भी मेरे पति को मेरी याद न आये,
कितनी बडी बात यहाँ उर्मिला जी कह रही है,जिन्होंने अपने नाम को सार्थक किया है,
अर्थात “उर” “मिला”,अपने उर को अन्तः करण को मिलाया है.शारीरक वासना का जहाँ कोई काम ही नहीं है.
और ऐसा ही क्यों माँगा उर्मिला जी ने क्योकि उर्मिला जी जानती है कि भगवत सेवा में भोगो का सर्वोपरि त्याग होना चाहिये
और लक्ष्मण जी के महान त्याग में यदि एक बार भी उर्मिला जी कि याद आती तो मोह आ जाता इसलिए वे कहती है कि मेरी याद नहीं आनी चाहिये.
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