सत्य से बढकर और कुछ नहीं है।
*नास्ति सत्यसमो धर्मो न सत्याद्विद्यते परम् । न हि तीव्रतरं किञ्चिदनृतादिह विद्यते ॥
सत्य जैसा अन्य धर्म नहीं । सत्य से पर कुछ नहीं । असत्य से ज्यादा तीव्रतर कुछ नहीं ।
*परंतु जो गंभीर चिंतक होते हैं , वे दूर तक सोचते हैं। झूठ के दुष्परिणामों = चिंता तनाव भय आदि को समझ लेते हैं , इसलिए मिथ्या चरण नहीं करते, मिथ्या भाषण नहीं करते, और सत्य का ही प्रयोग करते हैं । वे निश्चिंत तनावमुक्त आनंदित निर्भय होकर जीवन जीते हैं। आप भी इन बातों का चिंतन करें । झूठ से बचने का प्रयास करें, सत्य का आचरण करें तथा सदा निर्भय होकर जिएँ।
*जीव मात्र सुख चाहता है ।सुख भी ऐसा जो सर्वदा मिले सर्वत्र मिले और सब से मिले जिसके लिए परिश्रम न करना पड़े। जो पराधीन न हो एवं जिसका भान होता रहे इतनी उच्च कोटि की महत्वाकांक्षा होने पर भी यह एक विचित्र सी बात है कि उसकी प्राप्ति के साधन के संबंध में सब एकमत नहीं है ।कोई किसी देश में पहुंचकर सुखी होने में विश्वास रखते हैं ।तो कोई परिस्थिति विशेष उत्पन्न करके सुखी होने की चेष्ठा कर रहे हैं। कोई किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए क्रियाशील है। तो कोई लोकहितकारी श्रम की प्रतिष्ठा मे ही लगे हुए हैं। कोई हाथ जोड़कर किसी दूसरे से सुख की भिक्षा मांग रहे हैं ।तो कोई चेतना शून्य होने का उपक्रम कर रहे हैं ।जितने जीव उतनी मती और उतने ही मत। जैसे कुएं में ही भांग पड़ गई हो। सुख के लिए भोग करें कि संयम? त्याग करें कि संग्रह ?कर्म करें कि सन्यास ?नाचे कूदे की समाधि लगाएं? किसी की स्मृति करें अथवा सबका विस्मरण कर दें? होश में रहे कि बेहोश हो जाएं ?इतने मतभेद का एक ही कारण है कि जो सुख हम चाहते हैं उसका ठीक-ठीक स्वरूप हमने निश्चित नहीं किया है। तभी तो तात्कालिक अपूर्ण श्रमसाध्य स्थिति और पराधीनता आदि में ही अपना इष्ट सुख मिलने की भ्रांति से ग्रस्त हो रहे हैं। और शांति के स्थान पर भ्रान्ति और क्लान्ति का अनुभव कर रहे हैं।
*त्याग..एक छोटा सा शब्द है, किन्तु इसमें कितना भार है, इसका कितना महत्व है, कितना कठिन अर्थ है यह तो वास्तव में त्याग करने वाला ही जान सकता है अथवा एक सच्चा प्रेमीजन जो उस त्याग से अभिभूत हुआ हो, प्रभावित हुआ हो, वही जान सकता है। बहुत दुविधापूर्ण एवं दुःखद पहलू यह भी है कि अक्सर 'त्याग' को महत्व ही नहीं दिया जाता.. समझने का प्रयास भी नहीं किया जाता। वहीं बोल कर किया जाने वाला, बखान करते हुए किया जाने वाला त्याग स्वयं ही अपना महत्व खो बैठता है। त्याग सदैव दुखदायी नहीं..एक असीम सुख की अनुभूति भी है.. एक चरम आनंद की प्राप्ति भी है..इससे भयभीत न हों..सामयिक परिणाम अद्भुत भी प्राप्त हो जाते हैं.. शुभता बनाये रखें..!!..प्रसन्न रहें!!*
ईश्वर सदैव हमारे संग हैं*
*अन्धकार और प्रकाश से मिलकर रात्रि और दिन की रचना हुई है। उसी से काल-चक्र घूमता है ताने और बाने के उलटे सीधे धागों से कपड़े बुना जाता है। संसार में वाँछनीय और अवाँछनीय दोनों ही तत्व तो दैनंदिन जीवन की खोज से बच कर अपने व्यक्तित्व को सद्गुणों से सुसज्जित बनाया जा सकता है। संसार के परिवर्तन चक्र को जो विनोद की तरह देखता है, वह सुखी रहता है।*
*मनुष्य वस्तुतः विचारों का पुंज है उसे दृष्टिकोण के आधार पर ही जीवन का वाह्य स्वरूप बनता व आन्तरिक स्तर का निर्माण होता है आस्थायें-मान्यतायें सही बनती चली जाये तो परिस्थितियोँ कैसी भी हों, मानवीय उत्कर्ष-व्यक्तित्व का विकास हो कर ही रहता है, यह एक सुनिश्चित सत्य है।*
सत्यमेव व्रतं यस्य दया दीनेषु सर्वदा । कामक्रोधौ वशे यस्य स साधुः – कथ्यते बुधैः ॥
'केवल सत्य' ऐसा जिसका व्रत है, जो सदा दीन की सेवा करता है, काम-क्रोध जिसके वश में है, उसी को ज्ञानी लोग 'साधु' कहते हैं ।
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