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Showing posts from August, 2018

शिवलिंग का अर्थ

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                            शिवलिंग प्रकृति से शिवलिंग का क्या संबंध है ..? जाने शिवलिंग का वास्तविक अर्थ क्या है और कैसे इसका गलत अर्थ निकालकर हिन्दुओं को भ्रमित किया...??  कुछ लोग शिवलिंग की पूजा की आलोचना करते हैं..। छोटे छोटे बच्चों को बताते हैं कि हिन्दू लोग लिंग और योनी की पूजा करते हैं । मूर्खों को संस्कृत का ज्ञान नहीं होता है..और अपने छोटे'छोटे बच्चों को हिन्दुओं के प्रति नफ़रत पैदा करके उनको आतंकी बना देते हैं।संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है । इसे देववाणी भी कहा जाता है। *लिंग* लिंग का अर्थ संस्कृत में चिन्ह, प्रतीक होता है… जबकी जनर्नेद्रीय को संस्कृत मे शिशिन कहा जाता है। *शिवलिंग* >शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का प्रतीक…. >पुरुषलिंग का अर्थ हुआ पुरुष का प्रतीक इसी प्रकार स्त्रीलिंग का अर्थ हुआ स्त्री का प्रतीक और नपुंसकलिंग का अर्थ हुआ नपुंसक का प्रतीक। अब यदि जो लोग पुरुष लिंग को मनुष्य की जनेन्द्रिय समझ कर आलोचना करते है..तो वे बताये ”स्त्री लिंग ”’के अर्थ के अनुसार स्त्री का लिंग ...

मित्रता दिवस पर अनमोल वचन*

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* 👉मित्रता दिवस पर अनमोल वचन * * जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। * * तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥ * * निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥1॥ * जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥ * जिन्ह कें असि मति सहज न आई। * * ते सठ कत हठि करत मिताई॥ * * कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥2॥ * जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥ * देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥ * * बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥ * देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥ * आगें कह ...

ईश्वर का अंश जीव

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ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥ सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥ वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। मित्रो, ईश्वर न तो दूर है और न अत्यंत दुर्लभ ही है, बोध स्वरूप एकरस अपना आत्मा ही परमेश्वर है, नाम और रूप विभिन्न दिखते हैं, मगर वह अनामी, अरूप एक ही है, ईश्वर का और हमारा संबंध अमिट है, जीव ईश्वर का अविनाशी अंश है, जैसे आकाश व्यापक है ऐसे ही परमात्मा व्यापक है, जो चैतन्य परमात्मा सगुण-साकार में है, वही आपकी और हमारी की देह में है। वह नित्य परमेश्वर अपने से रत्ती भर भी दूर नहीं है क्योंकि वह व्यापक है, सर्वत्र है, सदा है, सज्जनों! आपने वो घटना सुनी होगी, स्वामी राम कृष्ण परमहंसजी के पास एक युवक आया, गुरूदेव मुझे भगवद् दर्शन करना है, आप करवा सकते हो? बोले क्यो नहीं? परमहंसजी उसको गंगा स्नान कराने ले गये, जैसे ही गंगा में डुबकी लगाई तो परमहंसजी उसकी पीठ पर बैठ गये, वो अकुलाने लगा। पूरे प्राणों की ताकत लगा कर जैसे-तैसे ऊपर निकला, युवक ने ...