संस्कृत श्लोक

(संस्कृत श्लोक)



यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः।

 तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।

 भावार्थ :

घिसने, काटने, तापने और पीटने, इन चार प्रकारों से जैसे सोने का परीक्षण होता है, इसी प्रकार त्याग, शील, गुण, एवं कर्मों से पुरुष की परीक्षा होती है ।


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥

 भावार्थ :

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है ।


सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।

 सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥

 भावार्थ :

सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव - विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।


पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत: ।

 पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ।।

 भावार्थ :

भरतश्रेष्ठ ! पिता , माता अग्नि ,आत्मा और गुरु – मनुष्य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिए।


सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि । 

गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥


 भावार्थ :

तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो । नारायणि! तुम्हे नमस्कार है ।


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