ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥ सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥ जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥ वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। मित्रो, ईश्वर न तो दूर है और न अत्यंत दुर्लभ ही है, बोध स्वरूप एकरस अपना आत्मा ही परमेश्वर है, नाम और रूप विभिन्न दिखते हैं, मगर वह अनामी, अरूप एक ही है, ईश्वर का और हमारा संबंध अमिट है, जीव ईश्वर का अविनाशी अंश है, जैसे आकाश व्यापक है ऐसे ही परमात्मा व्यापक है, जो चैतन्य परमात्मा सगुण-साकार में है, वही आपकी और हमारी की देह में है। वह नित्य परमेश्वर अपने से रत्ती भर भी दूर नहीं है क्योंकि वह व्यापक है, सर्वत्र है, सदा है, सज्जनों! आपने वो घटना सुनी होगी, स्वामी राम कृष्ण परमहंसजी के पास एक युवक आया, गुरूदेव मुझे भगवद् दर्शन करना है, आप करवा सकते हो? बोले क्यो नहीं? परमहंसजी उसको गंगा स्नान कराने ले गये, जैसे ही गंगा में डुबकी लगाई तो परमहंसजी उसकी पीठ पर बैठ गये, वो अकुलाने लगा। पूरे प्राणों की ताकत लगा कर जैसे-तैसे ऊपर निकला, युवक ने ...
*"गुरु गूंगे गुरू बावरे गुरू के रहिये दास "* एक बार की बात है नारद जी विष्णु भगवानजी से मिलने गए ! भगवान ने उनका बहुत सम्मान किया ! जब नारद जी वापिस गए तो विष्णुजी ने कहा हे लक्ष्मी जिस स्थान पर नारद जी बैठे थे ! उस स्थान को गाय के गोबर से लीप दो ! जब विष्णुजी यह बात कह रहे थे तब नारदजी बाहर ही खड़े थे ! उन्होंने सब सुन लिया और वापिस आ गए और विष्णु भगवान जी से पुछा हे भगवान जब मै आया तो आपने मेरा खूब सम्मान किया पर जब मै जा रहा था तो आपने लक्ष्मी जी से यह क्यों कहा कि जिस स्थान पर नारद बैठा था उस स्थान को गोबर से लीप दो ! भगवान ने कहा हे नारद मैंने आपका सम्मान इसलिए किया क्योंकि आप देव ऋषि है और मैंने देवी लक्ष्मी से ऐसा इसलिए कहा क्योंकि आपका कोई गुरु नहीं है ! आप निगुरे है ! जिस स्थान पर कोई निगुरा बैठ जाता है वो स्थान गन्दा हो जाता है ! यह सुनकर नारद जी ने कहा हे भगवान आपकी बात सत्य है पर मै गुरु किसे बनाऊ ! नारायण! बोले हे नारद धरती पर चले जाओ जो व्यक्ति सबसे पहले मिले उसे अपना गुरु मानलो ! नारद जी ने प्रणाम किया और चले गए ! जब नारद जी धरती पर आये तो उन्हे...
न ह्रश्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते। गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स पंडित उच्यते।। अर्थ: जो अपना आदर-सम्मान होने पर ख़ुशी से फूल नहीं उठता, और अनादर होने पर क्रोधित नहीं होता तथा गंगाजी के कुण्ड के समान जिसका मन अशांत नहीं होता, वह ज्ञानी कहलाता है।। अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते। अविश्वस्ते विश्वसिति मूढ़चेता नराधम: ।। अर्थ: मूढ़ चित्त वाला नीच व्यक्ति बिना बुलाये ही अंदर चला आता है, बिना पूछे ही बोलने लगता है तथा जो विश्वाश करने योग्य नहीं हैं उनपर भी विश्वाश कर लेता है। अर्थम् महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा। विचरत्यसमुन्नद्धो य: स पंडित उच्यते।। अर्थ: जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्वर्यको पाकर भी इठलाता नहीं चलता, वह पंडित कहलाता है। एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन: । भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते।। अर्थ: मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत से लोग उसका आनंद उठाते हैं। आनंद उठाने वाले तो बच जाते हैं; पर पाप करने वाला दोष का भागी होता है। एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता। बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट...
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